Tuesday 28 October 2014

भूख उम्र नहीं देखती ॥


लोकल के सफर में दिलचस्प दृश्य देखा आज एक
शाम हो चुकी थी, छुट्टी का दिन था सो भीड़ भी कुछ ख़ास नहीं
मज़ाक मत समझना, वेस्टर्न लाइन पे सीट भी मिली ।
एक टुनटुना वाला कुछ बेसुरे तान टटोल रहा था PVC पाइप के टुकड़े पर
उसका सूरज ढल तो कबका चुका था, बेचारा अंधा जो था।
बेटी भी थी साथ में, यही कुछ 4-5 बरख की, हाथ फैलाये चिल्लर बटोर रही थी
किसी ने एक टका, तो कुछ ने दो के नए वाले सिक्के भी दिए।
विडम्बना तो देखो, टूनटूने पे 'सारे जहाँ से अच्छा ……' बजा रहा वो पगला
मासूम बेटी का चेहरा काला पड़ गया था सूखे आँसुओं की पपड़ी से
दीवाली का समय है इसलिए बदन ढकने के कपडे भी थे आज
कोई दानी अमीर सुबह मंदिर पे बाँट गया होगा शायद ।
भावी होकर मैंने जेब से दस का एक नोट निकाला
उस बच्ची ने मुँह उठाके दो बार ताका
नन्ही हथेली पे पच्चीस जो जमा हो गए थे
आज पाव के साथ वडा और चटनी भी नसीब में हो शायद।
मन विचलित हुआ कि उस बच्ची का यूँ पैसे माँगना सही था कि नहीं
भूख आखिर child labor के कानून जो नहीं जानती
अगर पता होता तो शायद ऐसे बच्चों को बक्श देती
पर भूख उम्र और जात-पात नहीं देखती ना ।
डिब्बे में कुछ चालीस लोग रहे होंगे , सिर्फ 8-9 ने उस टुनटुने के फटे सुरों को सुना
बाकी तो मोबाइल वाले थे, इयरफोन से कान बंद किये हुए थे
आँखें किससे बंद थी ये समझ नहीं आया
अब आतिफ और अरिजीत के सामने ये टुनटुना वाला क्या ही था।
उस पगले टुनटुने वाले को कौन समझाए
ये best services at cheapest price का युग है
ईअरफ़ोन पे गाने फ्री में जो मिलते हैं
उत्तर गया वो अगले स्टेशन पे अगली लोकल के इंतज़ार में ।